त्वचा रोगोंकी उत्पत्ति और उनकी आयुर्वेदिक चिकित्सा

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त्वचा शरीर को सुंदरता प्रदान करती है। सभी स्त्री-पुरूष सौंदर्य-आकर्षण बनाये रखने के लिए त्वचा की बहुत देखभाल रखते हैं। प्रतिदिन स्नान के समय त्वचा को तरह-तरह के साबुनों से साफ किया जाता है। सर्दी में बर्फीली वाय के सम्पर्क और ग्रीष्म ऋत में ल के थपेडों से त्वचा पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। त्वचा शरीर को सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करती है। यही नहीं, सर्दी-गरमी का अनुभव भी त्वचा के माध्यम से होता है। त्वचा पर बने रोमछिद्रे से पसीने के रूप में शरीर से दूषित तत्व निकलते हैं। त्वचा जल, वायु के हानिकारक संक्रमण को रोकती है। सूर्य किरणों से त्वचा को ऊर्जा मिलती है। ऊर्जा शरीर में पहंचकर कोशिकाओं को सक्रिय करती है। जब देर तक त्वचा पर सूर्य किरणें पड़ती रहती हैं तो कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। ऐसे समय त्वचा रंगों के कण निर्मित करके त्वचा को हानि से सुरक्षा प्रदान करती है।


त्वचा के विभिन्न रोग-विकार


त्वचा शरीर की सुरक्षा करके सौंदर्य आकर्षण की वृद्धि करती है उतनी ही अधिक रोगों-विकारों से विकृत होती हैं। त्वचा की विकृति फोड़े-फुसियों, खाजखुजली से प्रारंभ होती है। प्रकृतिक विरुद्ध भोजन करने से रक्त दुषित होने पर त्वचा के रोगों की उत्पत्ति होती है। संयोग-देश, काल और मात्रा आदि के विपरीत भोजन ग्रहण करने से जैसे मछली और दूध के एक साथ सेवन करने से त्वचागत रोग उत्पन्न होते हैं। श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) को अधिकांश स्त्री-पुरुष पूर्व जन्म के पापों का फल मानते हैं लेकिन आयुर्वेद चिकित्सा के अनुसार प्रकृति विरुद्ध आहार के सेवन से श्वेत कुष्ठरोग की उत्पत्ति होती है।


कुष्ठ रोग (कोढ़) : 


त्वचा रोगों से कुष्ठ अर्थात कोढ़ को असाध्य व घृणित रोग माना जाता है। कुष्ठ को अधिकांश लोग पाप कर्मों का प्रतिफल की संज्ञा देते हैं। शरीर में रक्त के दूषित होने से त्वचा पर कुष्ठ रोग की उत्पत्ति होती है। कुष्ठ की उत्पत्ति होने से रोगी की स्थिति बहुत भयंकर हो जाती है।


आधुनिक परिवेश में कुष्ठ की सफल चिकित्सा होती है। कुष्ठ की उत्पत्ति 'मायको पैक्टेरियम लेप्रो' दण्डाणुओं द्वारा होती है। दूषित जल व भोजन द्वारा दण्डाणुओं के शरीर में पहुंचने पर कुछ महीनों के उपरांत कुष्ठ के व्रण त्वचा पर बनने लगते हैं।


आयुर्वेद चिकित्सा ग्रंथों में अनेक प्रकार के कष्ठ रोगों का वर्णन किया गया है। कुष्ठ रोग की उत्पत्ति में वात, पित्त, कफ दोषों का भी बहुत हाथ रहता है। कुष्ठ के व्रणों में बहुत खुजली होती है और व्रण पकने पर उनमें से मवाद निकलने लगता है। मवाद के शरीर के अंग पर लगने से वहां भी कुष्ठ व्रण बनने लगते हैं।


कुष्ठ रोग की आयुर्वेदिक चिकित्सा :



  • कुष्ठ रोग की आयुर्वेदिक चिकित्सा : कुष्ठ कुठार रस की 1-1 गोली सुबह-शाम जल के साथ सेवन करने से कुष्ठ रोग का निवारण होने लगता है।

  • कुष्ठ कालानल रस की एक या दो गोली सुबह-शाम जल के साथ सेवन करने से कुष्ठ का प्रकोप कम होता चला जाता है। इस रस की गोलियों के साथ यहां मंजिष्ठा क्वाथ सेवन करने से भरपूर लाभ होता है

  • गलत्कुष्ठार रस 250 मिलीग्राम मात्रा में एक बार सुबह और एक बार शाम को अनन्तमूल के क्वाथ के साथ सेवन करने से गलित कुष्ठ नष्ट होता है।

  • गंधक रसाय की 1-1 गोली सुबह-शाम मंजिष्ठा क्वाथ के साथ सेवन करने से कुष्ठ का निवारण होता है।

  • बाकुची के बीजों को कूटकर बरीक चूर्ण बनाकर रखें 5-5 ग्राम चूर्ण प्रतिदिन सुबह-शाम हल्के गरम जल के साथ सेवन करने से कुष्ठ का प्रकोप नष्ट होता है

  • खादेरारिष्ट 15-20 मिली लीटर मात्रा में लेकर, इतना ही जल मिलाकर, भोजन से पहले दोनों समय सेवन करने से कृष्ठ की विकृति नष्ट होती है।

  • कुष्ठ राक्षस तेज या कुष्ठ कालानल तेज दिन में दो बार लगाने से कुष्ठ के व्रण नष्ट होने लगते हैं।


अंगुली बेस्टक (उंगलियों में शोथ) :


 घरों में सुई से कुछ सीने पर या चाकूछुरी से कुछ काटने पर थोड़ी-सी भूल हो जाने से कट जाने पर वहां शोथ की विकृति होती है। शोथ के पकने पर उस भाग से पस (मवाद) निकलने लगती है। किसी विषैले जीव- जन्तु के काट लेने व डंक मारने पर भी उक्त भाग में शोथ होने पर पस बनने लगती है। उंगलियों के बीच उत्पन्न सड़न की विकृतित्त को अंगली बेष्टक कहते हैं। वर्षा ऋतु में गंदे जल से, कीचड़ के कारण पांवों की उंगलियों के बीच अंगली बेनक की विकृति बहुत होती है। नाखून के मूल में चोट लग जाने पर शोथ के कारण अंगुली वेष्टक हो जाता हैअंगुली वेस्टक में शोथ होने से बहुत दर्द होता है। रोगी रात को सो नहीं पाता हैएलोपैथी चिकित्सक ऑपरेशन का परामर्श ही देते हैं।


अंगुली नेस्टक की आयुर्वेदिक चिकित्सा :



  • रस माणिक्य 60-150 मिलीग्राम त्रिफलाचूर्ण व मधु मिलाकर, दिन में दो बार सेवन करने से अंगुली विस्टक की विकृति का निवारण होता है।

  • गंधक रसायन 1 या 2 ग्राम मात्रा में मंजिष्ठा कवाथ के साथ सुबह-शाम सेवन करने से अगुला वेष्टक नष्ट होता है।

  • करने से अगुला वेष्टक नष्ट होता है। प्रभाव . यशद भस्म 125 ग्राम मात्रा में एक बार सुबह, एक बार शाम श्वेत को मधु मिलाकर चाट कर सेवन श्वेत करने से बहुत लाभ होता हैअमृतादि गुग्गुल की एक

  • अमृतादि गुग्गुल की एक या दो गोली सुबहशाम जल के साथ सेवन करने से अंगुली बेस्टक नष्ट होता है। 

  •  मंजिष्ठा अर्क 15-20 मिली लीटर, भोजन के बाद दोनों समय सेवन करने से बहुत लाभ होता है। ऊर्क के बराबर जल मिलाकर सेवन करें।

  • दशांग लेप या स्वर्ण क्षीरी लेप करने से लाभ होता है।

  • जात्यादि तेल लगाने से बहुत लाभ होता है। टंकणामृत मलहम अंगुली वेष्टक

  • टंकणामृत मलहम अंगुली वेष्टक का निवारण करता है।


 श्वेत कुष्ठ (सफ़ेद रोग) 


 श्वेत कुष्ठ रोग होने से त्वचा का रंग सफेद हो जाता है। चेहरे व गर्दन व हाथों पर श्वेत कुष्ठ होने पर स्त्री-पुरुष बहुत भयभीत होते हैं। श्वेत कुष्ठ से लड़कियों को अधिक भय होता है। लड़कियां श्वेत कुष्ठ के कारण हीनभावना की शिकार बन जाती हैं। चेहरे की बदसूरती के कारण कोई युवक उनसे व विवाह के लिए तैयार नहीं होगा। . वत श्वेत कुष्ठ रक्त विकृति से होने वाला त्वचा रोग है लेकिन श्वेत कुष्ठ छत का रोग नहीं होता है। स्त्री से पुरूष को श्वेत कुष्ठ रोग नहीं होता है। श्वेत कुष्ठ को कष्ठ (कोढ़) समझकर बहुत से लोग लड़कियों से विवाह को तैयार नहीं होते। प्रकृति विरूद्ध आहार का सेवन करने से रक्त दुषित होने पर श्वेत कष्ठ की विकति होती है। फास्ट फूड व डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ श्वेत कुष्ठ की उत्पत्ति में बहत सहायता करते हैं। श्वेत कष्ठ रोग में त्वचा के ऊपरी भाग और बालों की जड़ों में उपस्थित मेलोनोसाइटस कोशिकाओं सर्य की प्रचण्ड किरणों के प्रभाव से विकृत होती हैं तो त्वचा के रंग को श्वेत कर देती हैं। अम्लीय, लवण रसों के खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में सेवन करने से श्वेत कुष्ठ की विकृति होती है।


श्वेत कष्ठ की आयर्वेदिक चिकित्सा :



  • श्वित्रारि रस की गोलियां 250 मिलीगाम मात्रा में लेकर, खरल में पीसकर शुद्ध घी और मधु मिलाकर, दिन में दो बार चाट कर सेवन करने से श्वेत कुष्ठ नष्ट होता जाता है। 

  • गंधक रसायन की 1-1 गोली, दिन में दो बार मंजिष्ठा कवाथ के साथ सेवन करने से श्वेत कुष्ठ का निवारण होता जाता है।


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