I V Fके इच्छाकदंपतियों के लिए नई आशा है

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इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन यानी IMSI बारे में नई दिल्ली के फोर्टिस ला फेम अस्पताल तथा मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल के फर्टिलिटी विशेषज्ञ डॉक्टर रिषीकेश Dr Hrishikesh Pai से कविता पंत की बातचीत डॉक्टर पई का कहना है कि सामान्य रूप से संतानोत्पत्ति नहीं कर पाने वाले दंपत्तियों के लिए इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन यानी IMSI ने आशा की एक नई किरण पैदा कर दी है जिससे आईवीएफ तकनीक और अधिक प्रभावी हो गई है क्योंकि डॉक्टर इसकी मदद से शुकाणुओं को पहले की तुलना में 7200 गुना अधिक बड़ा करके देख पाते हैं। इससे उन्हें कमजोर और स्वस्थ शुकाणुओं के बीच से स्वस्थ शुकाणु चुनने में मदद मिलती है। ऐसे दम्पत्ति, जो सामान्य रूप से संतानोत्पत्ति करने में असफल रहते हैं, वे आईवीएफ की मदद लेते हैं। अधिकतर मामलों में डॉक्टर पति के शुकाणुओं को पत्नी के अंडाणुओं के साथ मिलाकर निषेचित करते हैं। लेकिन उन मामलों में। जिनमें स्पर्म काउन्ट लो होते हैं, यानी शुकाणु कमज़ोर होते हैं, ऐसी स्थिति में डॉक्टर स्वस्थ शुकाणु चुनने के लिए कंप्यूटर से जुड़ा एक मेडिकल माइकोस्कोप इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने बताया कि आईवीएफ की सफलता की दर और बेहतर बनाने के लिए उत्तर भारत में पहली बार इन्ट्रासाइटोप्लाजमिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन यानी IMSI मशीन आई है।


डॉक्टर पई का कहना है कि इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक स्पर्म इंजक्शन यानी आईसीएसआई पर होने वाले भारी खर्च को ध्यान में रखते हुए, ऐसे दम्पत्ति, जो असफलता की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते, आईएमएसआई का विकल्प चुन सकते हैं। फिलहाल उपलब्ध (इन्ट्रा- साइटोप्लाज़मिक स्पर्म इंजक्शन -आई.सी.एस.आई) तकनीक की तुलना में इस तकनीक से सफलता की दर बेहतर होती है, क्योंकि इसमें शुकाणुओं को दो सौ गुना बड़ा करके देखा जा सकता है। उनका कहना है कि इन्ट्रा साइटोप्लाज़मिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन (आईएमएसआई) उत्तरी भारत में पहली बार फोर्टिस ला _


__ फेम अस्पताल और मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में उपलब्ध है। डॉक्टर पई का कहना है, "स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या कम होने के कारण बड़ी संख्या में आईवीएफ के असफल होने का खतरा बना रहता है। सामान्यरूप से प्रत्येक अंडे के निषेचन के लिए कम से कम 50,000 सकिय एवं स्वस्थ शुकाणुओं की आवश्यकता होती है। इसलिए आईवीएफ के लिए 40 से 50 लाख स्पर्म काउन्ट की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि शुकाणुओं की संख्या आवश्यकता से कम होती है तो ऐसी स्थिति में इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन (आईएमएसआई) तकनीक इस्तेमाल की जाती है। इस प्रक्रिया में शुक्राणुओं को 7200 गुना अधिक बड़ा करके देखा जाता है। इससे डॉक्टर कमजोर शुकाणुओं में से स्वस्थ शुकाणुओं को चुन पाते हैं।"


_ विशेषज्ञ आईसीएसआई की सफलता की अधिक दर का दावा करते हैं, इसलिए आईसीएसआई से अधिक सफलता की उम्मीद करने वाले दंपत्तियों को वे अब आईएमएसआई कराने की सलाह देते हैं। डॉक्टर पई का कहना है, "आईएमएसआई खासकर उन दंपत्तियों के लिए अधिक सफल सफल साबित हो सकता है, जिनके कम शुकाणुओं के कारण आईसीएसआई के कई प्रयास असफल हो चुके हों।" इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक मॉर्कोलोजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन (आईएमएसआई) तकनीक का ही परिष्कृत स्वरूप है। इसकी खासियत है कि इसकी मदद से डॉक्टर पारंपरिक इन्ट्रासाइटोप्लाज़मिक स्पर्म इंजक्शन तकनीक की तुलना में शुकाणुओं को कई गुना बड़ा करके देख स्वस्थ शुकाणुओं का चयन करने में सक्षम होते हैं। जिन लोगों के शुकाणुओं की संख्या बहद कम होती है उन्हें इस नई तकनीक से लाभ मिल सकता है। ऐसे दम्पत्ति, जो इस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं, वे अब पहली बार उत्तरी भारत में इस तकनीक के आ जाने से लाभान्वित हो सकेंगे।


आईवीएम उपचार में क्या होता है? डॉक्टर पई का कहना है कि सामान्य आईवीएफ में, महिला के अंडाणुओं को हार्मोनल दवाएं देकर परिपक्व किया जाता है। इसके बाद उन्हें ट्रांस वेजाइनल नीडल की मदद से विकसित किया जाता है और फिर उन्हें स्पर्म यानी शुकाणुओं के साथ मिला दिया जाता है। इसके बाद सेल यानी कोशिका के एक उपयुक्त स्तर पर विकसित हो जाने के बाद, भ्रूण या भ्रूणों को गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है। इन विट्रो मैच्यूरेशन (आईवीएम) में मिनिमल हार्मोनल । स्टिम्यूलेशन के बाद, सीधे अंडाशय से अंडाणु लिए जाते। हैं और महिला के गर्भ में विकसित करने के बजाय प्रयोगशाला में 24 से 48 घंटे तक विकसित किए जाते हैं। विकसित हो जाने के बाद उन्हें निषेचित करने के लिए इंजेक्शन से शकाओं के साथ मिला दिया जाताहै। हाल ही के वर्षों में, अत्याधुनिक तकनीक, आईएमएसआई का इस्तेमाल कर, परिपक्व अंडों को निषेचित करने के लिए इन्ट्रा-साइटोप्लाज्मिक मॉर्कोलॉजिकल सलेक्टिड स्पर्म इंजेक्शन (आई एम एस आई) का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद भ्रूण को महिला के गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है।


____ फर्टिलिटी विशेषज्ञ डॉक्टर रिषीकेश पई का कहना है कि आईवीएम (इन विट्रो मैच्यूरेशन) बांझपन और एआरटी (असिस्टिड रीप्रोडक्शन ट्रीटमेंट) के क्षेत्र में हाल ही में ढूंढी गई एक नई तकनीक है, जो बांझपन के उपचार में बेहद कारगार सबित होने जा रही है, खासकर ऐसी महिलाआ. के लिए जिन्हें पोलिसिस्टिक ओवरियन सिंड्रोम यानी पीसीओएस हो। डॉक्टर पई का कहना है कि पोलिसिस्टिक ओवरियन सिंड्रोम यानी पीसीओएस, एक ऐसी स्थिति है, जिसमें महिला के मासिक धर्म का चक, उसकी गर्भधारण करने की क्षमता, हार्मोन का स्तर तथा शरीरिक बनावट बिगड़ जाती है। पीसीओएस से पीड़ित महिला के शरीर में अधिक इन्सुलिन बनती है। अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि शरीर में अत्यधिक इन्सुलिन बनने से उनके शरीर में अत्यधिक मात्रा में पूरूष हार्मोन या एन्ड्रोजन्स बनना प्रारंभ हो जाते हैं। अत्यधिक पुरूष हार्मोन इन महिलाओं के शरीर में अंडाणुओं के विकसित होने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे गर्भधारण नहीं कर पातीं।। उनका कहना है कि बांझपन दूर करने का यह कांतिक. री उपचार पारंपरिक आईवीएफ का एक सस्ता एवं सुरक्षित विकल्प हैं। भारत में बहुत कम क्लीनिकों में ही आईवीएम की सुविधा उपलब्ध है। नई दिल्ली के ला फेम हॉस्पिटल में फोर्टिस ब्लूम आईवीएफ सेंटर तथा मुंबई के लीलावती ब्लूम आईवीएफ सेंटर में यह सुविधा हाल ही में प्रारंभ की गई है। ब्लूम आईवीएफ के मेडिकल डायरेक्टर डॉक्टर रिषीकेश पई तथा डॉक्टर नंदिता पलशेत्कर ने बांझपन की शिकार रोगियों के लिए यह तकनीक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।


डॉक्टर नंदिता पलशेत्कर कहती हैं,"गर्भधारण की उम्र वाली करीब पांच से दस प्रतिशत महिलाएं पीसीओएस से ग्रस्त होती हैं और इनमें से अधिकतर महिलाओं को यह पता ही नहीं होता कि उन्हें पीसीओएस है। अधिकतर महिलाएं तब तक इसकी जांच तक नहीं करवातीं, जब तक कि उन्हें गर्भधारण करने की इच्छा नहीं होती। पीसीओएस से ग्रस्त महिलाओं के उपचार में आईवीएम तकनीक, मील का पत्थर साबित होगी।"


___ फोर्टिस ब्लूम आईवीएफ सेंटर के स्त्री रोग एवं बांझपन विशेषज्ञ डॉक्टर पई का कहना है, "आईवीएम के हमें अच्छे नतीजे भी मिलने प्रारंभ हो गए हैं। हमें ऐसे बहुत से रोगी मिलते हैं जिनके गर्भधारण न कर पाने का कारण पीसीओएस होता है. अब उनका भी आसानी से उपचार संभव हो गया है। इससे एआरटी के लिए हमारी औसत क्लीनिकल प्रेगनेन्सी दर निश्चितरूप से बढ जाएगी, जो 35 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में 45-50 प्रतिशत है।"


डॉक्टर पई ने बताया कि स्टिम्यूलेटिड आईवीएफ साथ ओवरियन हाइपर स्टिम्यूलेशन सिंड्रॉम (ओएचएसएसहोने का खतरा जुड़ा होता है, जिसमें बहुत अधिक साइड इफैक्ट्स होते हैं, आईवीएम में इसका खतरा समाप्त जाता है क्योंकि इसमें अगर होता भी है तो मिनिमल ओवरियन स्टिम्यूलेशन ही होता है। इसके अलावा आईवीएफ की तुलना में आईवीएम कम खर्चीला है क्योंकि इसमें मंहगे गोनाडॉट्रोपिन इंजेक्शन नहीं लेने पड़ते तथा इसमें कम निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ आईवीएम में, इन विट्रो फर्टीलाइजेशन की तुलना में समय लगता है


आईवीएम ट्रीटमेंट से किसको लाभ पहुंचेगा :पीसीओएस से ग्रस्त महिलाओं के लिए यह आईवीएफ का विकल्प होगा : इन रोगियों को ओएचएसएस का काफी खतरा होता है। उन युवा महिलाओं के लिए यह आईवीएफ का विकल्प है, जिनका मासिक धर्म सामान्य है, क्योंकि यह कम कम खर्चीला और अधिक सुरक्षित है। यह उन महिलाओं के लिए भी लाभकर हो सकता है जिन पर ड्रग थैरेपी यानी दवाओं का असर नहीं होता। __उन यवा कैंसर ग्रस्त महिलाओं की प्रजनन क्षमता को संरक्षित करने में लाभकर हो सकता है जिन्हें कीमोथैरेपी या रेडियोथैरेपी लेनी हो। सामान्य आईवीएफ /आईसीएसआई के दौरान एकत्रित अपरिपक्व अंडों को सुरक्षित रखने के लिए (जब एकत्रित अंडों में उम्मीद से कहीं अधिक बड़ी संख्या में अपरिपक्व अंडे हों)। हाल ही में लीलावती हॉस्पिटल आईवीएफ सेंटर लैब में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया। इन विट्रो मैच्यूरेशन से जिन महिलाओं को सर्वाधिक लाभ होगा, वे हैं 35 साल या इससे कम उम्र की महिलाएं और जिनका फॉलिकल काउन्ट 10 या इससे अधिक है।


___डॉक्टर पई का कहना है कि आईवीएम ट्रीटमेंट से विश्व भर में कई शिशुओं का जन्म हुआ है, अभी तक आईवीएम सुराक्षत समझा जाता है।


सुराक्षत आईवीएम कराने वाली पैंतीस या इससे कम उम्र की आइवा महिलाओं का 35 से 40: का क्लीनिकल प्रेगनेंसी रेट, ५ पारंपरिक आईवीएफ/आईसीएसआई की तुलना में, अधिक ५ कारगर पाया गया है।


 


 


 


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